प्रेरणा

हिन्दू समाचार पत्र का रविवार अंक मुझे बहुत पसन्द है। मैं इन्तज़ार करती हूँ कि समाचार पत्र अाए अाैर मैं पढूँ। सम्पादकीय एवं अन्य लेख बहुत शोधित होते हैं।
बहुत दिनों से कुछ लिखने की इच्छा थी परन्तु प्रतिदिन साँस लेने का जुगार करते हुए एेसा लगता है जैसे किसी अौर इच्छा के लिए समय पर्याप्त नहीं है। लिखते हुए एेसा लग रहा है जैसे भाषा पर से पकड़ छूटती जा रही है अौर अपनी लिखावट देखकर यह यकीन है कि कलम की पकड़ भी कमज़ोर है।
कई दिनों से सीधा कम्प्यूटर पर लिखने के प्रयास में थी, लेकिन हिन्दी टाइपिंग पर महारत हासिल करना अौर साथ-साथ शब्द अौर सोच पर नियंत्रण लाना बिल्कुल असम्भव हो गया।लिखने में असमर्थ रहने के कारण मानसिक उहापोह भी धीरे धीरे विचलित करने लगा। अत: आज ख्याल आया कि पुराना तरीका अपनाया जाय, कलम से कागज़ पर लिखा जाय, शायद उससे कुछ बात बनें।
अरूणा रॉय का “सूचना का अधिकार” पर एक साक्षातकार छपा है। उनसे मुलाकात का मौका मुझे बहुत दिनों पहले तिलोनिया में मिला था। मेरी बाईस वर्ष की उम्र में उन्होंने काफ़ी गहरा प्रभाव छोड़ा था। अपने आप में शान्त, खुद पर भरोसा, सही कार्य अौर सोच का आत्मविश्वास एवं इन सभी कारणों के कारण उनके चेहेरे पर एक निर्भीक भाव था जिसे देखकर मैं आश्चर्यचकित थी। साथ ही मुझे अपनी बुद्धि, अपना विवेक, निर्णय एवं उन निर्णयों के पीछे अशोधित कारण बिल्कुल नज़र आ गए। जीवन की कई समझ बहुत आसान होती है, जैसे कभी झूठ नहीं बोलना; परन्तु उस दिन मुझे आभास हुआ कि उनपर अमल करना उतना ही मुश्किल होता है।
अरूणा जी का घर, उसका रख-रखाव, साज-सज्जा, सभी उनकी सोच से मेल खाते थे; एक सच्चाई थी जो नज़र आ रही थी। उनके बात-चीत से लेकर उनके रसोई घर का ग्लास तक बिल्कुल उनकी ही तरह था, सभी अपनें अस्तित्व को एक दूसरे के साथ जोड़ते हुए, संघर्ष सीमा पार करने के बाद अपने सही मुकाम पर। परन्तु इस बात का मुझे प्रतिपल आभास था कि यह आसान नहीं है। इस तरह की पारदर्शिता के लिए अपनेआप पर बहुत मेहनत करनी पड़ेगी, अौर वक्त भी देना पड़ेगा।
सोच यदि समझ आ जाए अौर उस पर नियंत्रण हो तो जीवन की बहुत सारीं सिलवटें धीरे-धीरे हटने लग जाती हैं, लेकिन ऐसी समझ पाने के लिए काफ़ी आत्मचिन्तन करना पड़ता है।

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