परिचय: प्रथम् अध्याय

भद्र पुरुष ने पूछा, “आपका परिचय क्या है?” सबसे पहले अपना नाम बताया। उसके बाद कुछ बोल नहीं पाई। सोचती रही क्या बताऊँ, कौन हूँ मैं!
“मैं” शब्द जितना सरल दिखता है, उतना ही उलझा हुआ है इसका अर्थ। बड़े-बड़े दार्शनिकों ने “मैं” पर किताबें लिख डालीं परन्तु अर्थ तक नहीं पहुँच पाए। ह्यूम एवं कान्त इस विषय पर अपने विचारों के लिए उल्लेखनीय हैं।
मैं की परिभाषा, जो हम समझते हैं, वह कहाँ से जन्म ले रही है! क्या वह अनुभूति मात्र है! या उसे हमेशा एक सापेक्ष दृष्टि में ही देखा जा सकता है, वह दृष्टि जो “अहम्” के चारों तरफ़ है; लेकिन उसमें “अहम्” शामिल नहीं है; परन्तु उस अवलोकन का अर्थ लगाना भी “अहम्” के समझ पर ही निर्भर है। “मैं” का आभास “तुम” से कितना परे है! जो हम अपने आप को समझते हैं, क्या वह धारणा बस हम निर्धारित करते हैं! दूसरों के वक्तव्य क्या महत्वहीन समझे जाएँगे! जब हम स्व की बात करते हैं तब हमारे विचार का रुख किस तरफ़ का होता है; अपने अन्तर्मन की तरफ़, या बाहरी दुनिया की अोर!
आज मेरा जो स्वरूप है यदि मानसिक रूप से समान स्वरूप कल ना रहे, क्या यह परिवर्तन व्यक्ति का परिवर्तन माना जाएगा या व्यक्तित्व का। व्यक्तित्व के परिवर्तन में समय लगता है, इसीलिए कई बार उसे महसूस करना मुश्किल होता है, चाहे वह अधोगति की अोर हो या अवनति की अोर।
क्रमश:

Comments

Popular Posts