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आज बहुत दिनों के बाद मैनें हिन्दी कविताएं पढी। पढकर बहुत अच्छा लगा, रामधारी सिंह दिनकर की रचित “शक्ति और क्षमा”। हिन्दी पढे हुए ऐसा लगता है जैसे अरसा बीत गया हो। शुद्घ हिन्दी सुनना भी दुर्लभ है। बात करो तो ऐसा प्रतीत होता है, जैसे एक अकेले मैंने ही हिन्दी पढी थी। दुःख इस बात का भी है कि अपनी भाषा के प्रति गर्व का अनुभव भी नहीं करते हैं।
मैंने भी कहाँ सोचा था कि मैं कमप्यूटर पर एक दिन हिन्दी में टाइप कर पाऊँगी। सीखने की इस प्रक्रिया का श्रेय श्री पुष्पेश पंत सर को जाता है। एक कॉन्फ्रेंस में मैंने उन्हें खिचडी पर एक लेख लिखते हुए देखा, अपने मेकबुक पर; चूँकि मैं उनके पीछे बैठी थी, इसलिए मेरा ध्यान हिन्दी में लिखी जाने वाली उन शब्दों की तरफ गया। कॉन्फ्रेंस खत्म होने पर मैंने उनसे पूछा कि वे इतनी आसानी से हिन्दी में कैसे टाइप कर लेते हैं, तब उन्होनें मुझे इसका तरीका बताया। बस फिर क्या था, सीखने का सिलसिला शुरू हो गया।

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