महेशइन्टे प्रतिकारम् - महेश का बदला
महेशइन्टे प्रतिकारम् की कहानी महेश द्वारा लिए गए बदले के चारों तरफ़ घूमती है। प्रमुख पात्र महेश, केरल के एक छोटे से कस्बे में, फोटोग्राफी की दुकान चलाता है। उसका व्यक्तित्व अपने आप में मग्न और खुशमिज़ाज़ किस्म का है। वह बिल्कुल ही महत्वाकांक्षी नहीं है। उसकी दुकान के साथ दूसरी दुकान है, जहाँ फोटोशाप व्यवहार करके नामपत्र इत्यादि डिज़ाइन किए जाते हैं। उम्र में फर्क होने के बावज़ूद दोनों दोस्त हैं। एकदिन किसी छोटी सी बात को लेकर झगड़ा शुरु होता है, जिसमें महेश का दोस्त उलझ जाता है, कुछ देर बाद उकसाने पर महेश भी उस झगड़े में शामिल हो जाता है और उसे चौराहे पर बुरी तरह मुँह की खानी पड़ी। महेश की धोती खुल जाती है और उसके चप्पल भी उसके पैरों से छिटक जाते हैं। सभी लोग झगड़े को तमाशे की तरह देख रहे हैं। यह हार, महेश के दिल को छू जाती है। वह उसी वक्त प्रण लेता है कि वह तभी चप्पल पहनेगा, जब वह अपने पराजय का बदला उस अपरिचित को द्वन्द्व युद्ध में हराकर न ले ले।
साधारण कहानी होने के बावज़ूद दिलीश पोथन का निर्देशन सराहणीय है। केरल की सुन्दरता को बहुत ही करीने से कैमरे में शामिल किया गया है। हरेक पात्र के जज्बात को समझकर, तदोपरान्त तराशकर उकेरा गया है।
कुछ दृश्यों ने मेरे मन पर अमिट छाप छोड़ी। "बारिश हो रही है, महेश बरामदे में पिता जी के साथ बैठा हुआ बारिश रुकने का इन्तज़ार कर रहा है। पिता जी महेश से कुछ पूछते हैं उस पर महेश उनसे कहता है कि वह दुकान से आने पर कर देगा। उस पर पिता जी का जवाब महेश को अन्दर से झकझोर कर रख देता है। उसे पहली बार इस बात का अहसास होता है कि वह अपने कार्य को महज़ अपने जीविकोपार्जन का जरिया न मानकर, उसे अपने आप को जानने, परखने और अपने आप को साबित करने का कारण समझे। कुछ वक्त इस पर विचार करने के बाद, महेश ने एक पूर्व कार्य को फिर से करने की सोची, जिसमें वह असफल हो गया था। वह फिल्म की नायिका की फिर से तस्वीरें लेता है। इस बार ली गईं तस्वीरें व्क्तित्व को उभारती हैं, उनमेंकिसी तरह का बनावटीपन नहीं होता है। यह तस्वीरें एक चर्चित मासिक पत्रिका के प्रमुख पृष्ठ के लिए चुन ली जाती हैं। महेश का विश्वास अपने आप पर कायम होता है, और उसे सराहना भी मिलती है। इस दौरान महेश और नायिका एक दूसरे को चाहने लगते हैं।
प्रेम के विभिन्न रूप को इस सिनेमा में बहुत ही सुन्दर तरीके से दिखाया गया है। बिना बोले बहुत कुछ कह जाना एवं आखों से अपनी बात कहते हुए देखकर चलचित्रकार, निर्देशक और पात्रों के सामने नतमस्तक होने की ईच्छा हुई। प्रेम का यह स्वरुप देखकर प्रेम करने से प्रेम हो गया।
महेशइन्टे प्रतिकारम् का एक संवाद शायद हमेशा के लिए मेरे ज़हन में समा गया है। पिता जी महेश को समझाते हैं कि चित्र लेना पढा़या नहीं जा सकता, लेकिन समझा जा सकता है।
चलचित्र का अन्त महेश द्वारा ठाने गए द्वन्द्व युद्ध में जीत से खत्म होता है, लेकिन दुश्मनी से नहीं।
फ़ाहद फ़ाज़िल ने महेश की भूमिका बख़ूबी से निभाई है। सभी पात्र अपने-अपने किरदार में खरे उतरे हैं।
मलयालम भाषा में बनाया गए इस चलचित्र से मुझे अपने कार्य में अपने आप को निहित करने की प्रेरणा मिली। हरेक व्क्ति विशेष ने अपना कार्य बहुत इमानदारी से किया, जिससे एक साधारण कहानी का रूपान्तरण एक अपूर्व और असाधारण चलचित्र में हो गया। छायाकार शायजू ख़ालिद का कार्य रोज़मर्रा में अपूर्व सुन्दरता को दिखाकर दिल को छू जाता है, ख़ालिद के छायाकंण में मुझे जापानी दर्शन वाबी-शाबी की झलक दिखाई देती है।
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